Thursday, July 18, 2019

हिन्दी, संस्कृत व भाषाई क्षेत्रवाद


#भाषा_बोली_और_Federalism नई शिक्षा नीति में भारत की राजभाषा के सार्वदेशिक अनिवार्य शिक्षण के नाम पर तमिलनाडु से उठे विरोध ने जिस प्रकार भारत सरकार को राष्ट्रीय एकात्मता के उस निर्णय में परिवर्तन के लिए बाध्य होना पड़ा, वह चिन्तनीय है । भाषावार प्रान्तीय गठन सहित क्षुद्र स्वार्थपूर्ण भारतीय भाषाई राजनीति ने जिस विभाजन और वैमनस्य को जन्म दिया, वर्तमान सरकार द्वारा उसे दूर करने के प्रयास का भी कोई सुफल अभी दृष्टिगोचर नहीं है । संसद में एम डी एम के के सांसद वाइको द्वारा हिन्दी के साथ संस्कृत का तिरस्कार फिरंगी द्वारा आविष्कृत और सैक्युलर गिरोह द्वारा पोषित आर्य- द्रविड़ मिथक का घातक परिणाम है जो उत्तर- दक्षिण भारत को परस्पर पारम्परिक शत्रु स्थापित करता है । इसका समाधान इतिहास के शैक्षिक पाठ्यक्रम का यथार्थ व तार्किक संशोधन अपरिहार्य है जिससे भाषाई विवाद स्वत: समाप्त हो सकता है....सम्भवतः । मराठी, बंग्ला भाषियों का यदा कदा हिन्दी विरोध विशुद्ध राजनैतिक व तात्कालिक रहता है, महत्वहीन है । जम्मू कश्मीर में कश्मीर घाटी व शेष प्रान्त में भाषाई प्राथमिकता में भेद है, कश्मीर के मुस्लिम अधिपत्य से जिस प्रकार कश्मीरी की शारदा लिपि को अरबी में परिवर्तित कर भाषाई जिहाद को आधिकारिक स्वरूप मिला वही जिहादी मानसिकता और उसका सैक्युलर समर्थन कश्मीर घाटी में संस्कृत-हिन्दी के विनाश की पृष्ठभूमि को व्याख्यायित करती है । नागालैंड की राजभाषा अंग्रेजी होना ईसाई मतान्तरण जनित है और इसके विस्तार का भी मूल कारण भारत का वीभत्स सेक्युलरवाद है । पंजाबी भाषा के नाम पर १ नवम्बर १९६६ को पंजाब के क्षेत्रफल को और कम करने का आधार भी हिन्दी/हिन्दू विरोधी सेक्युलरवाद ही रहा जिसने गुरुमुखी लिपि वाली पंजाबी भाषा के नाम पर पंजाबी को सिख मत से जोड़कर पंजाब में पृथकतावाद का बीजारोपण किया, परिणाम हमारे समक्ष है । भाषाई पंजाब की स्थापना के उपरान्त मूलरूप से वाक/बोली की शाब्दिक रिक्तता को जिस प्रकार संस्कृत/हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी/अरबी के शब्दों से भरा जाने की कुचेष्टा हुई व पंजाब में हिन्दी/संस्कृत का तिरस्कार उससे पंजाब के नैसर्गिक प्रतिभा विकास को क्षति हुई है । ध्यातव्य है कि १९४७ में पाकिस्तान के जन्म के समय पंजाब का जो एक बड़ा क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया उसमें पंजाबी बोली/वाक होते हुए भी उसकी लिपि गुरुमुखी नहीं अरबी प्रभाव वाली शाहमुखी है और भारत के पंजाब में गुरुमुखी के नाम पर देवनागरी का तिरस्कार । क्रान्तिकारी भगत सिंह ने गुरुमुखी की पंजाबी को दोषपूर्ण मानते हुए पंजाबी की लिपि देवनागरी करने का तार्किक सुझाव दिया था किन्तु वर्तमान भारतीय पंजाब ने भगत सिंह के तर्क की अवहेलना कर उसके चित्र को पगड़ी पहना दी । पंजाब के साथ लगते हरियाणा प्रान्त में गुरुमुखी वाली पंजाबी को संस्कृत के समकक्ष रखकर विद्यार्थियों की भाषाई समझ को कुण्ठित किया गया वह भाषाई आतंकवाद व उसके सैक्युलर समर्थन का वीभत्स रूप है । जिस काम चलाऊ गुरुमुखी को एक सामान्य छात्र एक शैक्षणिक सत्र में भली भान्ति सीख कर आवश्यकता पड़ने पर गुरुमुखी को लिख पढ़ सकता है उसे विकल्प के नाम पर संस्कृत से वंचित रखना अन्याय ही नहीं राष्ट्रघात है । संस्कृत व हिन्दी कोई क्षेत्रीय/आंचलिक/पान्थिक भाषाएं नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत की सांस्कृतिक अस्मिता व मनीषा का सर्वग्राही स्रोत हैं । सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी की मान्यता निर्दोष व सहज है और अपनी संस्कृति, अस्मिता संरक्षण के लिए संस्कृत । जैसे भी हो इन दोनों भाषाओं और देवनागरी लिपि के संरक्षण- संवर्धन से भारत की एकात्मता को बल मिलेगा, यह निश्चित है । डॉ. जय प्रकाश गुप्त